लगभग 270 वर्ष पूर्व, अध्यात्मिक चेतना से ओतप्रोत एक संत, *संत भीखणजी* ने धार्मिक क्षेत्र में एक क्रांति का सूत्रपात किया। यह क्रांति थी शिथिलाचार के विरुद्ध; यह क्रांति थी सत्य और आत्मनियंत्रण के प्रति पूर्ण समर्पण की; यह क्रांति थी भगवान महावीर के मूल सिद्धांतों को जीवन में उतारने की। इस नवीन आंदोलन का नाम पड़ा *तेरापंथ* — अर्थात् "तेरा पंथ, हे प्रभु, तेरा ही पंथ"।
तेरापंथ की स्थापना विक्रम संवत 1817* (जून 28, 1760 — शनिवार) को राजस्थान राज्य के *उदयपुर जिले के केलवा* नामक स्थान पर हुई थी। संत भीखणजी, जो मूलतः स्थानकवासी परंपरा से जुड़े थे, ने अपने गुरु *आचार्य रघुनाथजी* से दीक्षा ली थी। परंतु धर्म और आचार संहिता को लेकर उनके अपने गुरु से कुछ वैचारिक मतभेद हुए। परिणामस्वरूप उन्होंने एक नये विचारधारा की नींव रखी।
तेरापंथ का आधार है 13 सिद्धांत*, जिनमें शामिल हैं: ] 1. पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) 2. पाँच समितियाँ (आचरण की मर्यादाएँ) 3. तीन गुप्तियाँ (मन, वचन, काय पर नियंत्रण)
इन्हीं तेरह सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण इसे "तेरापंथ" कहा गया। कुछ मान्यताओं के अनुसार, स्थापना के समय संघ में *13 साधु और 13 श्रावक* थे, इसी कारण भी इसे तेरापंथ कहा गया।
तेरापंथ की एक विशेष बात यह है कि यह संप्रदाय *"एक आचार्य"* प्रणाली का पालन करता है। संपूर्ण संघ, चाहे वह साधु-साध्वी हों या श्रावक-श्राविका, केवल *एक आचार्य* के नेतृत्व में कार्य करता है। सभी संत उसी के आदेशानुसार उपदेश देते हैं और संघ की सम्पूर्ण गतिविधियाँ उसी के निर्देशानुसार चलती हैं। यह केंद्रीय नेतृत्व व्यवस्था, अन्य जैन संप्रदायों के लिए भी अनुकरणीय उदाहरण बन गई है।
तेरापंथ संप्रदाय में *अनुशासन और मर्यादा* का अत्यधिक महत्व है। इसी भावना को सजीव करते हुए हर वर्ष *माघ शुक्ल सप्तमी* को *"मर्यादा महोत्सव"* का आयोजन होता है, जिसमें समस्त संतों और अनुयायियों का एकत्र मिलन होता है। यह आयोजन न केवल संगठन की एकता को दर्शाता है बल्कि तेरापंथ की मूल भावना – मर्यादा में रहकर धर्म की सेवा – को भी उजागर करता है।
तेरापंथ के साधु-साध्वियाँ गृहस्थ जीवन को त्याग कर पाँच महाव्रतों का पालन करते हुए आत्मकल्याण हेतु जीवन समर्पित करते हैं। वहीं श्रावक-श्राविकाएँ अपने सांसारिक जीवन में रहते हुए 12 लघुव्रतों का आंशिक या पूर्ण रूप से पालन करते हैं।
तेरापंथ धर्मसंघ के प्रचार और विस्तार में कई आचार्य एवं संतों ने कठिन तप, सेवा, और त्याग से योगदान दिया। *आचार्य भिक्षु* से लेकर *आचार्य जयाचार्य* और आगे, प्रत्येक युग में श्रद्धालुओं का यह कारवाँ बढ़ता गया। कठिन यात्राओं, अपार संघर्षों और अडिग निष्ठा के साथ तेरापंथियों ने सत्य और संयम के इस पंथ को जन-जन तक पहुँचाया। आज, सीमित श्रावक वर्ग से प्रारंभ हुआ यह आंदोलन एक सशक्त धार्मिक परंपरा बन चुका है, जो अनुशासन, समर्पण, और सिद्धांतों की कसौटी पर खरा उतरते हुए आगे बढ़ रहा है।